सुबह- सुबह जब सोकर उठा,
बारिश की हल्की फुहारों ने,
मेरे सारे बर्तन भिंगो दिए थे,
जिन्हें अमूमन छोड़ आता हूँ आँगन में,
रात भर चंदा संग बरजोरी के लिए.
छत पर टहलते वक्त महसूसता रहा,
पैरों तले जमीन अभी गीली थी,
और चंद फ़ाहे लटके हुए थे,
औंधे आसमानी स्लेट पर.
घर के पिछवाड़े तन कर खड़ी पहाड़ी ने,
लगता है तड़के ही उठकर,
धोया था अपना चेहरा,
हरे-भरे पेड़ शायद इंतजार में थे,
कुछ आवारगी कर गुजरने के लिए.
तभी कुछ हवाबाजी हुई,
हवा में घुली ठंडक ने,
बदन के सारे रोंये खड़े कर दिए,
पर घटाओं ने मुंह मोड़ लिया,
एक रिश्ता था,
जो बनते-बनते ठहर गया,
एक मौसम था,
जो शरारत करते-करते रह गया...
-नवनीत नीरव-
-नवनीत नीरव-
1 टिप्पणी:
Bahut achi kalpana kar lete hai aap. Aapki kavitae hi ye sabut hai.
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